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Monday 29 March 2021
मक्का की खेती
Akash Pathak: मक्का भारत में गेहूं के बाद उगाया जाने वाली दूसरी महत्वपूर्ण फ़सल है। हमारे देश के अधिकांश मैदानी भागों से लेकर 2700 मीटर ऊंचाई वाले पहाड़ी क्षेत्रों तक मक्का सफलतापूर्वक उगाया जाता है। यह एक बहुपयोगी फ़सल है क्योंकि मनुष्य और पशुओं के आहार का प्रमुख अवयव होने के साथ ही औद्योगिक दृष्टिकोण से भी यह महत्वपूर्ण भी है।
भारत में इस फ़सल के खेती लगभग 1600 ई० के अन्त में ही शुरू की गई और वर्तमान में भारत संसार के प्रमुख उत्पादक देशों में एक है। भारत में मक्का की विविध क़िस्में उत्पन्न की जाती है जो कि शायद ही किसी अन्य देश में सम्भव हो। इसका प्रमुख कारण भारत की जलवायु की विविधता हैं।
कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन और विटामिनों से भरपूर मक्का शरीर के लिए ऊर्जा का अच्छा स्त्रोत है साथ ही बेहद सुपाच्य भी. इसके साथ मक्का शरीर के लिए आवश्यक खनिज तत्वों जैसे कि फ़ासफ़ोरस, मैग्निशियम, मैगनिज, ज़िंक, कॉपर, आयरन इत्यादि से भी भरपूर फ़सल है।
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भारत में मक्का की खेती तीन ऋतुओं में की जा सकती है, ख़रीफ़ (जून से जुलाई), रबी (अक्टूबर से नवम्बर) एवं ज़ायद (फ़रवरी से मार्च)।
यह समय मक्का की बुवाई के लिए खेतों को तैयार करने का उचित समय है। मानसून का आरम्भ अर्थात वर्षा के आगमन के साथ मक्का बोना चाहिए, परंतु अगर सिंचाई के पर्याप्त साधन हो तो 10-15 दिन पहले भी बुवाई की जा सकती है। बीज की बुवाई मेड़ के किनारे व ऊपर 3-5 सेमी. की गहराई पर करनी चाहिए। बुवाई के एक माह बाद मिट्टी चढ़ाने का कार्य करना चाहिए। बीज को बोने से पहले किसी फंफूदनाशक दवा जैसे थायरम या एग्रोसेन जी.एन. 2.5-3 ग्राम प्रति किलो बीज के दर से उपचारित करके बोना चाहिए। बीज को एजोस्पाइरिलम या पी.एस.बी.कल्चर (5-10 ग्राम प्रति किलो बीज) से उपचारित करना चाहिए।
पौधे लगाते हुए उनके बीच की दूरी का ध्यान रखना भी आवश्यक है। बीज को बोने के दौरान पौधों में अंतर लगाए जाने वाली प्रजाति के अनुसार होना चाहिए उदाहरण के लिए शीघ्र पकने वाली प्रजातियों (70-75 दिन) में कतार से कतार में 60 सेमी. एवं पौधे से पौधे-20 सेमी., मध्यम/देरी से पकने वाली प्रजातियों के लिए कतार से कतार-75 सेमी. पौधे से पौधे-25 सेमी. और हरे चारे के लिए कतार से कतार: 40 सेमी. और पौधे से पौधे में 25 सेमी. की दूरी रखना उचित रहता है।
मक्का की क़िस्में
अवधि के आधार पर मक्का की क़िस्मों को निम्न चार प्रकार में बाटा गया है:
अति शीघ्र पकने वाली किस्में (75 दिन से कम)- जवाहर मक्का-8, विवेक-4, विवेक-17, विवेक-43, विवेक-42, प्रताप हाइब्रिड मक्का-1.
शीघ्र पकने वाली किस्में- (85 दिन से कम)- जवाहर मक्का-12, अमर, आजाद कमल, पंत संकुल मक्का-3, चन्द्रमणी, प्रताप-3, विकास मक्का-421, हिम-129, डीएचएम-107, डीएचएम-109, पूसा अरली हाइब्रिड मक्का-1, पूसा अरली हाइब्रिड मक्का-2, प्रकाश, पी.एम.एच-5, प्रो-368, एक्स-3342, डीके सी-7074, जेकेएमएच-175, हाईशेल एवं बायो-9637.
मध्यम अवधि मे पकने वाली किस्में (95 दिन से कम)- जवाहर मक्का-216, एचएम-10, एचएम-4, प्रताप-5, पी-3441, एनके-21, केएमएच-3426, केएमएच-3712, एनएमएच-803 , बिस्को-2418
देरी की अवधि मे पकने वाली (95 दिन से अधिक )- गंगा-11, त्रिसुलता, डेक्कन-101, डेक्कन-103, डेक्कन-105, एचएम-11, एचक्यूपीएम-4, सरताज, प्रो-311, बायो-9681, सीड टैक-2324, बिस्को-855, एनके 6240, एसएमएच-3904.
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खेत की तैयारी ऐसे करें
भूमि की तैयारी करते समय 5 से 8 टन अच्छी तरह सड़ी हुई गोबर की खाद खेत मे मिलाना चाहिए और भूमि परीक्षण उपरांत जहां जस्ते की कमी हो वहां 25 किग्रा प्रति हेक्टेयर जिंक सल्फेट वर्षा से पूर्व डालना चाहिए। खेतों में डाले जाने वाले खाद व उर्वरक की मात्रा भी चुनी हुयी प्रजाति पर ही निर्भर करती है जो निन्मवत है:
शीघ्र पकने वाली क़िस्मों के लिए :- 80 : 50 : 30 (N:P:K)
मध्यम पकने वाली क़िस्मों के लिए:- 120 : 60 : 40 (N:P:K)
देरी से पकने वाली क़िस्मों के लिए:- 120 : 75 : 50 (N:P:K)
मक्का की खेती के दौरान खाद व उर्वरक की सही विधि अपनाने से मक्का की वृद्धि और उत्पादन दोनों को ही फ़ायदा होता है। जैसे कि डाली जाने वाली पूरी नाइट्रोजन की मात्रा का तीसरा भाग बुआई के समय, दूसरा भाग लगभग एक माह बाद साइड ड्रेसिंग के रूप में, तथा तीसरा और अंतिम भाग नरपुष्पों के आने से पहले। फ़ोसफ़ोरस और पोटाश दोनों की पूरी मात्रा को बुआई कि समय मिट्टी में डालना चाहिए जिससे ये पौधों के जड़ो से होकर पौधों में पहुँच सके और उनकी वृद्धि में अपना योगदान दे सकें।
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सिंचाई
मक्के के फ़सल को अपने पूरे फ़सल अवधि में 400-600 मिमी. पानी की आवश्यकता होती है। पानी देने की महत्वपूर्ण अवस्था पुष्पों के आने और दानों के भरने का समय होता है अतः इस बात का ध्यान रखने की आवश्यकता है। मक्के के खेत में 15 से 20 व 25 से 30 दिनों तक खर-पतवार नियंत्रण व निराई-गुड़ाई करनी चाहिए। खरपतवार को निकलते वक़्त इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि वो जड़ से नष्ट हो, बीच से टूटने से वो और तीव्रता से बढ़ते हैं।
मक्का एक ऐसी फ़सल है जिसके साथ अंतरवर्ती फ़सले भी उगायी जा सकती हैं, जैसे उरद, बोरो या बरबटी, मूँग, सोयाबीन, तिल, सेम इत्यादि। मौसम के अनुसार अंतरवर्ती फ़सल के रूप में सब्ज़ियों को उगा सकते है जो किसानों के लिए वैकल्पिक आय का माध्यम बन सकता है।
कटाई और भंडारण
प्रजाति के आधार पर फ़सल के कटाई की अवधि होती है, जैसे चारे वाली फ़सल को बोने के 60-65 दिन बाद, दाने वाली देशी क़िस्म बोने के 75-85 दिन बाद, व संकर और संकुल क़िस्म बोने के 90-115 दिन बाद काटना होता है। कटाई के समय दानों में लगभग 25 प्रतिशत तक नमी रहती हैं।
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कटाई के बाद मक्का फ़सल में सबसे महत्वपूर्ण कार्य गहाई है इसमें दाने निकालने के लिये सेलर का उपयोग किया जाता है। सेलर नहीं होने की अवस्था में साधारण थ्रेशर में सुधार कर मक्का की गहाई की जा सकती है इसमें मक्के के भुट्टे के छिलके निकालने की आवश्यकता नहीं है।
कटाई व गहाई के पश्चात प्राप्त दानों को धूप में अच्छी तरह सुखाकर भण्डारित करना चाहिए। दानों को बीज के रूप में भंडारण करने के लिए इन्हें इतना सुखा लेना चाहिए कि नमी करीब 12 प्रतिशत रहे।
"लेखिका डॉ. प्रीति उपाध्याय उत्तर प्रदेश के बलिया जिले की निवासी हैं। विज्ञान में स्नातक, इलाहाबाद कृषि संस्थान से आनुवांशिकी एवं पादप प्रजनन में परास्नातक एवं बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के कृषि संस्थान से 'आनुवांशिकी एवं पादप प्रजनन' में डॉक्टरेट की डिग्री लेने के बाद आजकल दिल्ली विश्वविद्यालय में कृषि आनुवांशिकी के क्षेत्र में अनुसंधानरत हैं।"
मिट्टी के लिए जागरूकता अभियान: आईपीएस ने साइकिल रैली में भाग लेकर कहा- वैज्ञानिक विधि से खेती करें किसान
ये कार्यक्रम देश के ग्रामीण मीडिया संस्थान गाँव कनेक्शन और कृषि क्षेत्र में काम कर रही संस्था कृषि तंत्रा की साझा मुहिम के तहत आयोजित किया गया। किसानों से सरोकार रखने वाले दोनों संस्थान मिलकर किसानों को जागरूक करने के लिए 11 राज्यों में रैली का आयोजन कर रहे हैं। कश्मीर से शुरू हुई ये रैली 40 दिनों बाद कन्याकुमारी में समाप्त होगी।
By - Mohit ShuklaUpdate: 2021-03-28 11:37 GMT
मिट्टी के लिए जागरूकता अभियान: आईपीएस ने साइकिल रैली में भाग लेकर कहा- वैज्ञानिक विधि से खेती करें किसान
कबीरधाम (छत्तीसगढ़)। मिट्टी की सेहत, मृदा संरक्षण और मिट्टी की जांच के प्रति लोगों को जागरुक करने के लिए छत्तीसगढ़ में आयोजित समारोह में लोगों ने बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया। कबीरधाम जिले के महली में हुए इस समारोह छत्तीसगढ़ आर्म्ड पुलिस फोर्स के कमान्डेंट जितेंद्र शुक्ल और जिले के पुलिस अधीक्षक शलभ कुमार सिन्हा ने कई किलोमीटर साइकिल चलाकर जागरुकता अभियान को आगे बढ़ाया।
छत्तीसगढ़ में कबीरधाम जिले के महली ग्राम पंचायत में 24 मार्च को गांव कनेक्शन और कृषि क्षेत्र में कार्यरत संस्था कृषतंत्रा (Krishritantra) के साझा प्रयास से मिट्टी संरक्षण जागरुकता कार्यक्रम का आयोजन किया गया। समारोह में भाग लेने पहुंचे छत्तीसगढ़ आर्म्ड पुलिस फोर्स में 17वीं बटालियन के कमांडेंट जितेंद्र शुक्ल ने कहा कि खेती करना आसान काम नहीं हैं इसके लिए कृषि क्षेत्र में जानकारी हासिल करना बहुत जरूरी है।
ये कार्यक्रम देश के ग्रामीण मीडिया संस्थान गाँव कनेक्शन और कृषि क्षेत्र में काम कर रही संस्था कृषि तंत्रा की साझा मुहिम के तहत आयोजित किया गया था। किसानों से सरोकार रखने वाले दोनों संस्थान मिलकर किसानों को जागरूक करने के लिए 11 राज्यों में रैली का आयोजन कर रहे हैं। कश्मीर से शुरू हुई ये रैली 40 दिनों बाद कन्याकुमारी में समाप्त होगी।
जागरुकता अभियान की शुरुआत तीन मार्च को शेर-ए- कश्मीर यूनिवर्सिटी ऑफ एग्रीकल्चर साइंस एंड टेक्नोलॉजी जम्मू-कश्मीर के कुलपति प्रो जेपी शर्मा ने हरी झंडी दिखाकर किया था। अब यह साइकिल रैली कश्मीर से लेकर उत्तर प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक, राजस्थान, गुजरात, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र आदि राज्यों से होते हुए 40 दिन के बाद कन्याकुमारी में खत्म होगी। जम्मू-कश्मीर में ही कृषि तंत्रा द्वारा निर्मित अत्याधुनिक स्वाइल टेस्टिंग मशीन कृषि रास्ता को भी किसानों के लिए सार्वजनिक किया गया था। छत्तीसगढ़ में आयोजित समारोह के अवसर पर कृषि तंत्रा के एरिया सेल्स मैनेजर अक्षय हेगड़े ने मुख्य अतिथि आईपीएस जितेंद्र शुक्ल व आईपीएस शलभ कुमार सिन्हा का बुके देकर स्वागत किया और स्मृति चिन्ह भेंट किए।
समारोह में आसपास के गांवों के 200 से ज्यादा किसान और युवा शामिल हुए। इस दौरान आईपीएस जितेंद्र शुक्ल और आईपीएस शलभ कुमार ने खुद युवाओं के साथ 5 किलोमीटर से ज्यादा साइकिल चलाई।
इस रैली के माध्यम से किसानों में मृदा संरक्षण को लेकर जागरूकता फैलाई जा रही है। जिससे किसान अपने खेतों में बेरोकटोक रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग न करके वैज्ञानिक विधि से मृदा स्वाथ्य के अनुसार ही उर्वरक का प्रयोग करें इसको लेकर महा अभियान चलाया जा रहा है।
कार्यक्रम के जरिए लोगों को बिना जांच के अंधाधुंध रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग के नुकसान और मिट्टी की गिरती सेहत के प्रति किसानों को सचेत किया जाता है।
समारोह में आए किसानों को संबोधित करते हुए विशिष्ट अतिथि कबीरधाम जिले के एसपी शलभ कुमार सिन्हा ने कहा, "जैसा कि अब मिट्टी के परीक्षण के लिये किसानों को राजनांदगांव नहीं जाना पड़ेगा। अब उनके गांव महली में ही तुरंत मिट्टी की जांच हो सकेगी। किसान भी अपनी रुचि इसके प्रति दिखाएं और आधुनिक तकनीक से खेती करें यही मेरा सभी से आग्रह है।"
समारोह में शामिल हुए वीपीएन किसान डेवलपमेंट आर्गनाइजेशन के अध्यक्ष प्रियजीत बोस ने किसानों को संबोधित करते हुए कहा अभी तक किसान मिट्टी की जांच कराने के किये राजनादगांव को जाते थे,वहां उनको महीनों इंतजार करना पड़ता था। फसल पक कर के तैयार हो जाती थी लेकिन उसके बावजूद भी किसानों को जांच रिपोर्ट नही मिलती थी। ऐसे में कृषि तंत्रा की मशीन से किसान तुरंत अपनी जांच करवा सकेंगे।"
कृषि रास्ता स्वाइल टेस्टिंग मशीन की खूबियां
कृषि तंत्र द्वारा निर्मित की गई 'कृषि रास्ता' महज 50 मिनट में 12 प्रकार के परीक्षण करके उसके रिजल्ट बता देती है। जबकि सामान्य मशीनें तीन तरह की चांच ही करती हैं और उनके नतीजें आने में काफी दिन लगते हैं। जबकि कृषि रास्ता जिंक, कॉपर, सल्फ़र, कार्बन, आयरन, बोरान, पोटेशियम आदि की तुरंत जांच कर रिजल्ट देती है। जांच रिपोर्ट के साथ ही कृषि वैज्ञानिक मुफ्त सलाह देते हैं।
केंद्र सरकार की मृदा स्वास्थ्य कार्ड
केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने फरवरी 2021 में लोकसभा में कहा कि साल 2015-17 के बीच पहले चरण में 10.74 लाख किसानों को मृदा कार्ड दिए गए थे तो 2017-19 के बीच दूसरे चरण में 11.93 किसानों को मृदा कार्ड दिए गए। साल 2019-20 के दौरान मॉडल ग्राम का कार्यन्वयन कर प्रत्येक ब्लॉक से एक 6954 गांवों से नमूने लेकर जागरुकता कार्यक्रम चलाए गए जबकि 2020-21 के दौरान जागरूकता कार्यक्रमों को बढ़ाने के लिए 98530 गांवों में प्रदर्शन और किसान परीक्षण का आयोजन का निर्यण लिया गया है। केंद्रीय कृषि मंत्री ने बताया कि मृदा परीक्षण समेकित पोषण प्रबंधन को बढ़ावा देने के लिए योजना अगले वित्त वर्ष में भी जारी रहेगी। वर्ष 2021-21 का अनुमान बजट 324.43 करोड़ रुपए है।
Also Read:मृदा संरक्षण जागरूकता अभियान: 'माटी बोल पाती तो अपने साथ हो रहे अन्याय का विरोध करती'
Friday 17 June 2016
Sugarcane(गनना) farming(खेती).....
Kiase Kare Ganne ki Unnat Kheti –
गन्ने की खेती
Agar aap bhi Ganne ki vaigyanik kheti
karne ki soch rahe hai to niche diye
gaye jankari se aap adhik se adhik
munafa kama sakte hain. गन्ने
की खेती को अगर कृषि
वैज्ञानिक द्वारा बताए गए तकनीको से
की जाये तो किसानो को बहुत
हीं कम लागत में अच्छा benefit हो
सकता है । भारत सरकार समय समय पर गन्ने
की फसल की दाम निर्धारित
करती रहती है जिससे
किसानो को उचित दाम मिल सके | आइये जानते है
की गन्ने की
खेती में अच्छे पैदावार के लिए कैसे
की भूमि की
तैयारी करे, किस तरह की
जलवायु होनी चाहिए, खाद कब और
कितना देना चाहिए आदि ।
Ganne ki Kheti Kaise Kare / How to do
Sugarcane Harvesting
Agar aapke pass 1 acre ya usse adhik
jamin ho to aap Ganne ki kheti kar ke
accha munafa kama sakte hain.
Ganne ko lagana aasan hai aur return
bhi accha milta hai. To chaliye jante
hai ganne kay kheti ki jankari taki aap
accha se kheti kar ke accha kama
sake:
भूमि चयन व
तैयारी / Preparation of Land
कृषि वैज्ञानिको द्वारा गन्ने की
खेती के लिए गहरी दोमट
भूमि सबसे best मानी जाती
है। भूमि की जुताई 40 से 60cm तक
गहरी करनी चाहिए क्योंकि
75% जड़े इसी गहराई पर पाई
जाती है । खेती शुरु करने
से पहले भूमि की जुताई कर उसे भुरभुरा
बना लें फिर उसपर पाटा चला कर उसे समतल बना लें
। गन्ने की खेती के लिए
खेत को खरपतवार से दूर रखना जरुरी है
। खेत की आखिरी जुताई
करने से पूर्व 10-12 ton प्रति एकड़ गाय
की सड़ी हुई गोबर
की खाद को भूमि में मिला देना चाहिए ।
जलवायु और बुआई का समय
गन्ने की अच्छी
बढ़ोतरी के लिए लम्बे समय तक गर्म
और नम मौसम साथ हीं अधिक बारिश का
होना best होता है । गन्ने की बुआई
के लिए temperature 25 से 30
डिग्री से. होना चाहिए । October से
November का महिना गन्ना लगाने का सबसे
सही समय होता है । इसके अलावा
February से march में भी गन्ने
की खेती की जा
सकती है । गन्ना 20 से 25
डिग्री से. तापमान पर अच्छा पनपता है
।
खाद प्रबंधन / Fertilizer Management
गन्ने की अधिक उत्पादन के लिए प्रति
hectare 300kg नत्रजन(nitrogen), 80kg
स्फूर (Phosphorus) और 60kg पोटाश
(potash) की अव्यश्कता
होती है । नत्रजन को तीन
बराबर भागो में मतलब प्रतेक भाग में 100kg
अंकुरण के वक्त या फिर बुआई के 30 दिन , 90
दिन और 120 दिन के बाद खेत में डाल देना चाहिए
और फिर फसल पर मिट्टी चढ़ा देना
चाहिए । स्फूर (Phosphorus) और पोटाश
(potash) की पूरी मात्रा
गन्ना लगाते समय हीं खेत में दे
देनी चाहिए ।
सिंचाई / जल प्रबंधन / Water
Management
गन्ने की खेती में
गर्मी के दिन में 10 दिन और ठंड के
दिन में 20 दिन के Interval पर खेत
की सिंचाई करनी चाहिए।
फवाड़ा विधि से सिंचाई करने पर उपज में वृद्धि
होती है साथ ही
पानी की बचत
भी होती है। गन्ने
की फसल को लगाने के 10 से 15 दिनों
के बाद खेत में बनी पपड़ी
तोड़ना बहुत अव्यश्क होता है इससे अंकुरण
जल्दी होता है ओर खरपतवार
भी कम आते है। गन्ने की
फसल को गिरने से बचाने के लिए गुड़ाई कर के 2 बार
फसल पर मिट्टी डाल देना चाहिए और
गन्ने की पत्तियों को आपस में बांध देना
चाहिए ।
रोग व किट नियंत्रण / Preventation from
Kits & Flies
गन्ने के बीज को नम गर्म हवा से
उपचारित करने पर वे रोग रहित हो जाते है । फसल
को रोगों से बचाने के लिए 600g डायथेम एम. 45 को
250 लीटर पानी के घोल में
5 से 10 मिनट तक डुबाना चाहिए। रस चुसने वाले
कीड़ो का प्रकोप गन्नो पर ज्यादा होता है
इसलिए इस घोल में 500ml मिलेथियान
भी मिलाया जाना चाहिए ।
गन्ने के टुकड़ो को लगाने से पहले मिट्टी
के तेल और कोलतार के घोल में दोनों सिरो को डूबा कर
उपचारित करने से दीमक का प्रकोप कम
हो जाता है ।
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Chilli(मिृचा) Farming....
Mirch ki Kheti ko Kaise Kare – मिर्च
की खेती
Agar aap Mirchi ki adhunik kheti karne
ki soch rahe hai to ise jarur padhe.
Kaise kisan bhai Chilli ka business kar
ke lakho kama rahe hain. मिर्च की
खेती कोई भी आम इंसान और किसान
भी कर सकता है क्योंकि इस खेती में बहुत
ही कम खर्च में अच्छी आमदनी होती है।
बाज़ार में मिर्च की अच्छी कीमत पाई
जाती है। आज के date में local market में
मिर्च का दाम लगभग Rs 80 से 100 –
kgचल रहा है | Vitamin-A और vitamin-B
से भरपूर, मिर्च की खेती अगर वैज्ञानिक
तकनीको से की जाये तो किसानो को
अच्छे फसल की प्राप्ति होती है। तो
आइये जानते है कैसे करे मिर्च की खेती
जिससे हमें अच्छे फसल की प्राप्ति हो |
मिर्ची की खेती की जानकारी /
How to start Chilli Farming Business
आज के दौर में धीरे धीरे लोग खेती की
तरफ लौट रहे हैं और यकीन मानिये
मिर्ची की खेती एक ऐसा व्यापार है
जो कम समय में काफी दिनों तक अच्छा
मुनाफा दे सकता है | To agar aap Chilli
farming ka business start karna
chahate hai to vaigyanik tarike se
apna kar accha khasa profit bana
sakte hai | Mirchi ki kheti aur business
karne ke liye niche diye gaye tips ko
apnakar accha munafa kamaya jaa
sakta hai. Agar aapke pass thodi se
bhi jamin ho (1 acer) to aap mirch ka
business kar ke aasani se 2 se 3 lakh
kama sakte hain. Iske saath saath aap
payaj ki bhi kheti ya bhindi ki bhi kheti
kar sakte hain.
भूमि की तैयारी
खेती शुरू करने से पहले भूमि की
inspection कर लेना अती आवश्यक है।
मिर्च की खेती दोमट मिट्टी वाली
भूमि पर करने से किसानो को खेती में
सफलता मिलती है। ट्रेक्टर द्वारा भूमि
की जुताई कर के उसे भुरभुरा कर लेना
चाहिए। ऐसा करने से सरे खरपतवार साफ़
हो जाते है और फसल भी ज्यादा होती
है। जब खेती के लिए भूमि की तैयारी कर
रहें हो तभी सरे आवश्यक खाद का
छिड़काव कर देना चाहिए ।
जलवायु
मिर्च को किसी भी मौसम में उगा सकते
है। लेकिन ज्यादातर मिर्च की खेती
सर्दी के मौसम में करने से अधिक लाभ
होता है। इसे उगाने के लिए कम तापमान
की आवश्कता होती है। अतः मिर्च को
शाम में लगभग 4 बजे के बाद रोपना
चाहिए जब धुप कम हो जाये। धुप में मिर्च
के पौधे को रोपने से पौधा मुड़झा जाता
है।
खाद
कृषि वैज्ञानिक के अनुसार मिर्च की
अच्छी उत्पादन के लिए कम से कम 250 से
300 क्विंटल सड़ी हुई गोबर का खाद,
70kg नत्रजन(nitrogen), 30kg फास्फोरस
(phasphoras) और 50kg पोटाश
(potash) प्रति हेक्टेयर की दर से भूमि में
मिला देना चाहिए । इसके अलावा
nitrogen की आधी और potash की पूरी
मात्रा रोपन की अंतिम तैयारी के समय
देना चाहिए। उसके बाद आधी बची हुई
nitrogen को 30 से 40 दिन के बाद देना
चाहिए। संकर बिज के लिए nitrogen
100kg, फास्फोरस 60kg और potash
80kg प्रति हेक्टयेर के दर से दिया जाना
उचित होता है।
पौधे का रोपन
मिर्च के पौधे को गढ्ढे में इस प्रकार रोपें
जिससे पौधे का आखरी पत्ता ज़मीन में
सटे। मिर्च के पौधे रोपने समय दो पौधे
की बिच की दूरी कम से कम 40 से 60 cm
होनी चाहिए। पौधा रोपने के 15 से 20
मिनट बाद लोटे से पौधे में पानी पटाए।
उसके बाद लगातार 3 से 4 दिन तक
दोनों time सुबह और शाम को पानी
पटाए ।
पौधे की सिचाई
मिर्च की सफल खेती के लिए और अच्छे
फसल के उत्पादन के लिए किसानो को
सिचाई को ले कर सतर्क रहना चाहिए।
मिर्च की खेती में पानी के बहाव का
आने और जाने की क्रिया बराबर बनी
रहनी चाहिए । मिर्च के फुल और फल लगने
के समय भूमि में नमी का होना अत्यंत
जरुरी है क्योंकि पानी के कमी से पौधे
का विकाश रुक सकता है। इसकी वजह से
फल की गिरने की संभावना बढ़ जाती है
।
किट पतंग से बचाओ
मिर्च के पौधो में लगने वाले किटों की
वजह से पत्तियां एक जगह हो कर छोटी
हो जाती है और एक ओर मुड़ जाती है
जिससे पौधे का विकाश रुक जाता है ।
किट लग जाने की वजह से पौधे में फुल
बहुत हीं कम निकलते है साथ हीं फल की
संख्या भी कम हो जाती है ।
कुछ किट ऐसे होते है जिसके लग जाने से
पौधे ऊपर से निचे की ओर सूखने लगते है।
पौधे में किट लग जाने से लगभग 35% उपज
कम हो जाती है। अतः किटों से
प्रभावित पौधों को जड़ से उखाड़ कर
फेक देना चाहिए ।
सबसे अच्छी बात यह है की एक मिर्ची
का पौधा लगभग 1 से 2 साल तक
लगातार मिर्च देते रहता है और अगर अच्छे
से पौधे का ख्याल रखा जाये तो कई
बार 2 से 30 महीनो तक आपको मिर्च
देता रहेगा | Yahi karan hai ki kai sare
kisan bhai mirch ki kheti ke business
mein lage hue hain.
Wednesday 15 June 2016
Lady finger (bhindi) farming..
Hindi Remedy
Bhindi ki Kheti Kaise Kare aur Jankari
– भिंडी खेती
Agar aap Bhindi jise ladyfinger bhi
bolte hai uksi kheti ke bare mein
jankari chahte hai ya ise kaise kare to
yahan par ako kuch acchi Bhindi
farming ki information mil sakti hai |
बाजार में बिकने वाली हरी
सब्जियों में से एक सब्जी
भिंडी(ladyfinger) भी
होती है जो की लोगो के बिच
बहुत हीं लोकप्रिय है।
भिंडी में protien, carbohydrate,
vitaminA, vitaminC, और vitaminB2 पाई
जाती है। इसमें iodien की
मात्रा अधिक पाई जाती है। अतः
भिंडी की खेती
करने से किसानो को बहुत लाभ हो सकता है। अगर
आप भी भिंडी
की खेती करने
की सोच रहे है तो निचे दिए गए
तरीको से खेती करे इससे
आप कम खर्च में अधिक लाभ पा सकेंगे ।
भिंडी की
खेती कैसे करे / Bhindi ki Kheti
Kaise Kare
Agar aap Bhindi ki farming karna
chahte hai to aapko vaigyanik /
scientific tareke se kheti karni hogi
taki kam sama mein munafa kamaya
jaa sake. Agar thik thara se kiya jaye
to aap saath he saath tamatar ki uchit
kheti kar ke lakho kama sakte hain.
To chaliye jante hai ladyfinger
farming step by step in Hindi
language:
भिंडी की
खेती के लिए जलवायु
अच्छे फसल की प्राप्ति के लिए
सही मौसम की
जानकारी होना बहुत हीं
जरुरी होता है। मौसम की
सही जानकारी ना होने से
खेती में नुकसान हो सकता है ।
भिंडी की खेती
करने के लिए गर्मी का मौसम सबसे
उपयुक्त होता है। अच्छे फल की
उत्पादन के लिए कम से कम 20 डिग्री
से. तक का तापमान होना चाहिए। 40
डिग्री से. से अधिक तापमान होने पर
फुल झड़ जाते है।
भूमि की तैयारी
खेती शुरू करने से पहले भूमि और
मिट्टी दोनों की अच्छे से
inspection कर लेना चाहिए इससे अच्छे फसल
की प्राप्ति होती है। वैसे तो
भिंडी की खेती
किसी भी तरह के भूमि पर
किया जा सकता है। लेकिन हल्की दोमट
मिट्टी जिसमे जल निकासी
अच्छी हो इसकी
खेती के लिए सर्वोतम है। अतः
भिंडी की खेती
करने के लिए भूमि की कम से कम 2,3
बार जुताई कर के उसे फिर से समतल कर देना
चाहिए।
बिज / रोपन
गर्मी के मौसम में 1 हेक्टेयर भूमि में
लगभग 20kg बिज रोपने के लिए उत्तम होता है।
वर्षा के मौसम में लगभग 15kg बिज रोपने के लिए
काफी होता है। बिज में अच्छे अंकुर
होने के लिए बिज को रोपने से पहले कम से कम 24
घंटे तक पानी में डाल कर छोड़ देना
चाहिए।
गर्मी के मौसम में भिंडी
की रोपाई करना सबसे सर्वोतम होता है ।
भिंडी की रोपाई एक कतार
(line) से करना चाहिए और हर line
की दूरी कम से कम 25 से
30cm होनी चाहिए। रोपाई के वक़्त दो
पौधों के बिच की दूरी कम से
कम 20cm होनी चाहिए। वर्षा के
मौसम में दो line की दूरी
लगभग 40cm और दो पौधों के बिच की
दूरी लगभग 30cm होनी
चाहिए।
गड्ढे की खोदाई/ खाद
बिज रोपने से 20 दिन पहले गड्ढे की
अच्छे से खोदाई कर के उसमे से सरे खरपतवार
साफ़ कर लेना चाहिए । उसके बाद बिज रोपने के कम
से कम 15 दिन पहले गड्ढे में लगभग 300
क्विंटल सड़ा हुआ गोबर का खाद मिला देना चाहिए ।
खाद के मुख्य elements में नत्रजन
(nitrogen)-60kg, सल्फर (sulphur)- 30kg,
और पोटाश (potash)-50kg को प्रति हेक्टर
की दर से मिट्टी में देना
चाहिए । बिज रोपने से पहले भूमि में nitrogen
की आधी और
sulphur,potash की पूरी
मात्रा देनी चाहिए। बिज रोपने के बाद
लगभग हर 30 दिन के अंतर पर nitrogen
की बची हुई मात्रा को दो बार
कर के देना चाहिए ।
किट/रोग से बचाओ
भिंडी के पौधों में लगने वाले रोग व किट 4
प्रकार के होते है :-
पीत शिरा रोग
इस रोग की वजह से भिंडी
के पौधों की पत्तियां और फुल
पूरी तरह से
पीली हो जाती
है जिसकी वजह से पौधे का विकाश रुक
जाता है । वर्षा के मौसम में इस रोग के लगने
की सम्भावना अधिक होती
है । इस रोग से प्रभावित हुए पौधे को जड़ से उखाड़
कर फेक देना चाहिए।
इस रोग से बचने के लिए 1ml आक्सी
मिथाइल डेमेटान को पानी में मिला कर
पम्प द्वारा भिंडी के खेत में छिड़काव
करना चाहिए ।
चूर्णिल आसिता
इस रोग की वजह से भिंडी
के पौधो की निचली
पत्तीओं पर सफ़ेद चूर्ण जैसा पिला दाग
पड़ने लगता है जो की बहुत
हीं तेजी से बढ कर पुरे पौधे
में फ़ैल जाती है । इसे जल्द से जल्द
ना रोकने पर फल की 30% उत्पादन
कम हो जाती है ।
इस रोग से बचने के लिए 2 kg गंधक(sulphur)
को 1 लीटर पानी में घोल कर
कम से कम 2,3 बार इसका छिड़काव करना चाहिए ।
उसके बाद हर 15 दिन पर इसका छिड़काव करते
रहना चाहिए ।
प्ररोह / फल छेदक
किट नाजुक तने में छेद कर देती है
जिसकी वजह से तना सूखने लगता है
और साथ ही साथ फुलो पर
भी आक्रमण करती है
जिसकी वजह से फल लगने से पहले
फुल गिर जाते है । ज्यादातर ये किट वर्षा के समय
लगती है। अतः इससे बचने के लिए
सबसे पहले प्रभावित फूलो और तनों को काटकर
फेक दे फिर 1.5 ml इंडोसल्फान को प्रति
लीटर पानी में मिला कर कम
से कम 2 से 3 बार इसका छिड़काव करे ।
जैसिड
ये किट भिंडी के पौधे में लगे
फुल,फल,पत्तियां और तने का रस चुसकर इन सब
को नुकसान पहुंचती है
जिसकी वजह से सरे प्रभावित
फुल,फल,पत्तियां और तने गिर जाते है ।
उपज और फल की तोड़ाई
किसानो को भिंडी की
खेती गर्मी के मौसम में
करने से ज्यादा benefit हो सकता है क्योंकि
सभी मौसम के अपेक्षा
गर्मी के मौसम में भिंडी
की उपज अधिक होती है
(कम से कम 65 से 70 क्विंटल प्रति हेक्टर
तक)। लगभग 50 से 60 दिनों में फलो
की तोड़ाई शुरु कर दी
जाती है। फल की तोड़ाई हर
5 से 6 दिन के अंतर पर करनी चाहिए ।
Radish(mUlee) farming...
मूली की
खेती
मूली
सामान्य विवरण:-
मूली, सलाद के रूप में उपयोग की
जाने वाली सब्जी है। उत्पत्ति
स्थान भारत तथा चीन देश
माना जाता है। सम्पूर्ण देश में विशेषकर गृह उद्यानों में उगाई
जाती है। मूली में गंध
सल्फर तत्व के कारण होती है। इसे क्यारियों
की मेड़ों पर भी उगा सकते हैं।
बीज बोने
के 1) माह में
तैयार हो जाती है। फसल अवधि 40-70 दिनों
की है। औसत उपज प्रति हेक्टर 100 से
300 क्विंटल होती है। शीघ्र
तैयार होने वाली सब्जी है।
मूली की जड़ों में गन्धक, कैल्शियम
तथा फाॅस्फोरस होता है।
मूली की जड़ों का उपयोग किया जाता
है, जबकि पत्तियों में जड़ों की अपेक्षा अधिक
पोषक तत्व होते
हैं। कैल्शियम,
फाॅस्फोरस, आयरन खनिज मध्यम तथा विटामिन ‘ए’ अत्यधिक
मात्रा में होता है। विटामिन ‘सी’ मध्यम होता है।
वर्ष में
तीन बार उगाई जा सकती हैं। गर्म,
तेज-तीखा स्वाद, पाचक, कोष्ठवध्यता दायक,
कृमिनाशक, वातनाशक, अनतिव ;।उमदवततीमंद्ध
गाँठ, बवासीर में उपयागी। हृदय
रोग, खाँसी,
कुष्ठ रोग,
हैजा में लाभदायक; उदर वायु रोग और गर्मी रोग
में आरामदायक। रस कान के दर्द में आरामदायक
(आयुर्वेद)।
आवश्यकताएँ:
जलवायु, भूमि, सिंचाई –
शीतल जलवायु उपयुक्त होती है
किन्तु गर्म वातावरण भी सह
सकती है। 15 C से 20 C तापक्रम उपयुक्त
माना जाता
है। सभी प्रकार की भूमि उपयुक्त
होती है, किन्तु भूमि में जड़ों के विकास के लिए
भुराभुरापन रहना
आवश्यक है। जल निकास भी आवश्यक है।
भारी भूमि में जड़ो का विकास ठीक से
नहीं होता है।
इसलिए उपयुक्त नहीं मानी
जाती है। सिंचाई की अधिक
आवश्यकता होती है,
10-15 दिन के,
अन्तर से सिंचाई की
जा सकती है। मेड़ों पर लगी हुई
फसल को अलग से पानी देने
की आवश्यकता नहीं
होती है।
खाद एवं उर्वरक
–
100 क्विंटल गोबर की खाद या कम्पोस्ट, 100
किलो नाइट्रोजन, 50 किलो फास्फोरस तथा 100 किला पोटाश
प्रति हेक्टर आवश्यक है। गोबर की खाद,
फास्फोरस तथा पोटाश खेत की तैयारी
के समय तथा नाइट्रोजन
दो भागों में बोने के 15 और 30 दिनों के अन्तर से
देनी चाहिए। उर्वरक सामान्य
विधि से देने चाहिए।
उद्यानिक क्रियाएँ:
बीज विवरण
–
प्रति हेक्टर बीज की मात्रा
–
5-10 किलो बोने के समय अनुसार
प्रति 100 ग्रा. बीज की संख्या –
30,000-45,000
अंकुरण –
70 प्रतिशत
अंकुरण क्षमता की अवधि –
3-5 वर्ष
बीज बोने का
समय –
समय – सितम्बर से जनवरी तक
अन्तर –
कतार – 30 सेमी., बीज-15
सेमी.।
बीजों को क्यारियों में या क्यारियों की
मेड़ों पर कतारों में बोना चाहिए।
मिट्टी चढ़ाना
–
जड़ों को ढकने के लिए मिट्टी चढ़ाना आवश्यक
है, क्यांेकि जड़ें अधिकतर भूमि के
बाहर आ जाती हैं।
खुदाई –
जड़ों को कड़ी होने से पहले मुलायम अवस्था में
ही खोद लेनी चाहिए।
Tuesday 14 June 2016
Rice(dhan,chawal) farming
धान (चावल) महत्वपूर्ण खाद्य स्रोत है और धान
(चावल) आधारित पद्धति खाद्य सुरक्षा,
गरीबी उन्मूलन और बेहतर
आजीविका के लिए जरूरी है। विश्व
में धान (चावल) के
कुल उत्पादन का लगभग 80 प्रतिशत हिस्सा
कम आय
वाले देशों में छोटे स्तर के किसानों द्वारा उगाया
जाता है। इसलिए विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में
आर्थिक
विकास और जीवन में सुधार के लिए दक्ष और
उत्पादक धान
(चावल) आधारित पद्धति आवश्यक है।
अतंर्राष्ट्रीय
धान (चावल) वर्ष 2004 ने धान (चावल) को केन्द्र बिंदु
मानकर कृषि, खाद्य सुरक्षा, पोषण, कृषि जैव विविधता,
पर्यावरण, संस्कृति, आर्थिकी,
विज्ञान, लिंगभेद और रोजगार के परस्पर संबंधों को नये
नजरिये
से देखा है। अंतर्राष्ट्रीय धान (चावल) वर्ष,
‘सूचना प्रदाता’ के रूप में हमारे समक्ष है ताकि सूचना
आदान-प्रदान, प्रौद्योगिकी हस्तांतरण और ठोस
कार्यों द्वारा धान (चावल) उत्पादक
देशों और अन्य सभी देशों के मध्य समन्वय हो
सके, जिससे धान (चावल) आधारित पद्धति का विकास और
उन्नत
प्रबंधन किया जा सके। यह शुरूआत सामूहिक रूप से काम
करने का एक सुअवसर है ताकि धान (चावल) के टिकाऊ
विकास और धान (चावल) आधारित पद्धतियों में बढ़ते
पेचीदा मुद्दों को आसानी से सुलझाया
जा सके। मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की खुदाइयों
में चावल के अवशेष मिले है वैज्ञानिकों
का मत है कि भारत में चावल ईसा से 5000 वर्ष पूर्व से
उगाया जाता रहा है। चावल का उल्लेख आयुर्वेद
एवं हिन्दू ग्रन्थों में भी है। चावल का उपयोग
भारत में वैदिक धार्मिक आदि कार्यो में
आदिकाल से होता आ रहा है। इन्हीं को आधार
मानकर चावल का उत्पत्ति स्थल
भारत तथा वर्मा को माना गया।
खेती:-
प्रमुखतः चीन, भारत और इंडोनेशिया में शुरू हुई,
जिससे धान (चावल) की तीन किस्में
पैदा हुई – जेपोनिका, इंडिका और जावानिका। पुरातत्व प्रमाणों
के अनुसार
धान (चावल) की खेती भारत में
1500 और 1000 ईसा पूर्व के मध्य शुरू हुई।
15वीं और 16वीं
सदी के पुराने आयुर्वेदिक साहित्य में धान
(चावल) की विभिन्न किस्मों का वर्णन आता
है, विशेषकर सुगंधित किस्मों का, जिनमें औषधीय
गुणो की भरमार थी। धान (चावल)
की खेती
के लंबे इतिहास और विविध वातावरण में इसे उगाकर धान
(चावल) को बेहद अनुकूलता प्राप्त
हुई। अब यह अलग-अलग वातावरण, गहरे
पानी से लेकर
दलदल, सिंचित और जलमग्न स्थितियों के साथ शुष्क ढलानों
पर
भी उगाया जाने लगा है। शायद किसी
भी फसल से ज्यादा धान (चावल) को अलग-
अलग भौगोलिक, जलवायुवीय और कृषि स्थितियों
में उगाया जा सकता है।
एशियाई उत्पत्ति से धान (चावल) अब 113 देशों में उगया
जाता है और विभिन्न भूमिकाएं
निभाता है जो खाद्य सुरक्षा के महत्वपूर्ण मुद्दों के साथ-
साथ ग्रामीण और आर्थिक विकास
से भी संबंधित है। प्रति वर्ष धान (चावल)
लगभग 151.54 मि. हैक्टर क्षेत्र में बोया
जाता है और इसका वार्षिक उत्पादन 593 मी.
टन है और औसत उत्पादकता 3.91 टन/हैक्टर है
(एफ ए ओ आंकड़े 2002)। सन् 1961 से पिछले चार
दशकों में क्रमशः क्षेत्र, उत्पादन और उत्पादकता में
3.12, 174.9 और 109.7 प्रतिशत की वृद्धि
हुई है। एशिया के
अलावा अफ्रीका, लैटिन अमेरिका, संयुुक्त राष्ट्र
अमेरिका और आस्ट्रेलिया में धान
(चावल) की खेती की
जाती है। यूरोपीय संघ में
भी इसकी सीमित
खेती होती है। प्रमुख धान
(चावल) उत्पादक देशों का वर्णन सारणी में दिया
जा रहा है। धान (चावल) की खेती
एशिया
में 136.07 मिलियन हैक्टर, अफ्रीका में 7.67
मिलियन हैक्टर और लैअिन अमरीका में 5.09
मिलियन हैक्टर में होती है। तीन
महाद्वीपों
में वार्षिक धान (चावल) उत्पादन क्रमशः 539.84, 16.97
और 19.54 मिनियन टन और औसत उत्पादकता 2.97,
2.21 और 2.84 टन/हैक्टर है। सन् 1961 से 2000
तक विश्व
धान (चावल) उत्पादन 265 से 561 मिलियन टन
यानी लगभग दुगुना हो गया।
अफ्रीका में धान
(चावल) उत्पादन में 6 से 15 टन (153 प्रतिशत), एशिया
में 286 से 470 मिलियन टन (65 प्रतिशत) और लेटिन
अमेरिका
में 8 से 18 मिलियन टन (100 प्रतिशत) बढ़त हुई।
इसी दौरान विश्व भर में धान (चावल)
उत्पादन में 2.11 से 3.75 टन/हैक्टर (78 प्रतिशत)
की बढ़ोत्तरी हुई।
अफ्रीका में 1.75
से 2.18 टन प्रति हैक्टर (24 प्रतिशत बढ़त) एशिया में
2.41 से 3.49 टन प्रति हैक्टर
(45 प्रतिशत) और दक्षिण अमेरिका में 1.72 से 3.19 टन
प्रति हैक्टर (86 प्रतिशत) बढ़ोतरी
हुई है। विकासशील देशों के ग्रामीण
इलाकों में धान (चावल) आधारित उतपादन पद्धतियों
और संबद्ध कटाई उपरांत क्रियाओं में लगभग एक अरब
लोगांे को रोजगार मिलता है। प्रौद्योगिकी
विकास ने धान (चावल) उत्पादन में काफी सुधार
किया है लेकिन कुछ प्रमुख धान (चावल) उत्पादक
देशों में उत्पादन में अंतर विद्यमान है। तीनों
महाद्वीपों के प्रमुख धान (चावल) उत्पादक
देश क्षेत्र,
उत्पदन, उत्पादकता और आधुनिक किस्मों की
खेती की दृष्टि से
अलग-अलग है। इन सभी
महाद्वीपों और देशों में उत्पादकता में अत्यधिक
सुधार के बावजूद
बेहद अंतर व्याप्त है, यहां तक कि उच्च
उत्पादक धान (चावल) किस्मों का क्षेत्र भी 25
से 100 प्रतिशत के बीच में है। पादप प्रजनन
गतिविधियों में प्रगति का एक प्रमुख कारक कई किस्मांे का
जारी होना है जो एक अरसे से
अपनाई जा रही है। सन् 1965 से एशिया में
सर्वाधिक किस्मों का विकास हुआ है, तत्पश्चात लैटिन
अमेरिका (239) और अफ्रीका (103) है।
विश्लेषण के अनुसार 1986 से 1991 में सर्वाधिक (400)
किस्में जारी की गयी।
तत्पश्चात
1976-1980 में (374) और 1981-85 में (373) का
स्थान रहा। 1965-1991 के दौरान हर पांच
वर्षो में जारी किस्मों की संख्या
1970 और 1980 के दशक में सर्वाधिक रही।
एशिया में
भारत ने सर्वाधिक धान (चावल) किस्मों का विकास किया
(643), तत्पश्चात कोरिया (106), चीन (82),
म्यांमार (76), बंगला देश (64) और
वियतनाम (59) है। पिछले तीन दशकों से 632
किस्मों का विकास किया गया और भारत के विभिन्न
क्षेत्रों के लिए केंद्रीय राज्य किस्म विमोचन
समितियों द्वारा व्यावसायिक खेती के
लिए ये किस्में जारी की
गयीं। कुल 632 किस्मों में से 374
(59प्रतिशत) किस्में सिंचित
क्षेत्रों,
123 (19.3 प्रतिशत) बारानी
ऊथली तलाऊ भूमि के लिए, 87 (13.7
प्रतिशत)
बारानी ऊपजाऊ भूमि के लिए, 30 (4.7
प्रतिशत)
बारानी अर्द्ध-गहरे पानी के लिए,
14 (2.2 प्रतिशत) गहरी जल स्थितियों के लिए
और 33 (5.2 प्रतिशत) पहाड़ी परिस्थितियों
के लिए जारी की गयीं।
कुल मिलाकर उच्च उत्पादक किस्मों का देश के कुल धान
(चावल) क्षेत्र
में 77 प्रतिशत योगदान है। सन् 1968 में केवल दो धान
(चावल) उत्पादक जिले ऐसे थे जिनमें
2 टन प्रति हैक्टर से ज्यादा उत्पादन होता था, लेकिन
2002 में 44 प्रतिशत धान (चावल) उत्पादक जिलों या 103
जिलों में 3 टन प्रति हैक्टर से ज्यादा धान (चावल)
की उपज हो रही है। सन 1968
में शून्य
की तुलना में अब 28 जिलों में 3 टन प्रति
हैक्टर स अधिक धान (चावल) की उपज
मिलती है।
इससे साफ है कि धान (चावल) उत्पादन बढ़ाने में देश और
विदेश स्तर पर हुए अनुसंधन प्रयासों
से महत्वपूर्ण प्रगति हुई है। धान (चावल) हमारे देश
की प्रमुख फसल है। देश में लगभग
70-80 प्रतिशत जनता का भरण-पोषण् इसी
फसल के द्वारा होता है। धान (चावल) की
खेती विभिन्न
भौगोलिक परिस्थितियों में लगभग 4 करोड़ 49 लाख हैक्टर
क्षेत्र (2001-02) में की जाती
है। प्रायः सभी राज्यों में यह फसल उगाई
जाती है, किंतु जहां अधिक वर्षा और सिंचाई का
प्रबंध है, वहां पर इसकी खेती
बड़े पैमाने पर की जाती है। धान
(चावल) का उत्पादन लगभग 9 करोड़ 33 लाख टन
(2001-02) तक पहुंच गया है। राष्ट्रीय स्तर
पर धान (चावल) की औसत पैदावार 2.08 टन/
हैक्टर (2001-02) है। अधिक पैदावार के लिए खाद
और सिंचाइ का अधिक उपयोग करने और धान (चावल)
की उन्नत किस्मों के प्रचलन से लगभग पिछले
दो दशकों में धान (चावल) की पैदावार में व्यापक
वृद्धि हुई है, फिर भी इसकी
औसत पैदावार इसकी उपयोग क्षमता स
काफी
कम है। हमारे देश में धान (चावल) की
खेती मुख्यतः तीन परिस्थितियों में
की जाती है
1. वर्षा आश्रित ऊंची भूमि 2. वर्षा आश्रित
निचली भूमि और 3. सिंचित भूमि। यदि धान
(चावल) की फसल को वैज्ञानिक
तरीके से उगाया जाये और कुछ महत्वपूर्ण बातों
का ध्यान
रख् तो निश्चित रूप से इसकी उपज में 15 से
20 प्रतिशत तक की वृद्धि हो
सकती है। इसके
लिए मुख्य सस्य क्रियाओं का विवरण इस प्रकार है-
भूमि का चुनाव और तैयारी
धान (चावल) की खेती के लिए
अच्छी उर्वरता वाली, समतल व
अच्छे जलधारण क्षमता वाली मटियार
चिकनी
मिट्टी सर्वोतम रहती है। सिंचाई
की पर्याप्त सुविधा
होने पर हल्की भूमियों में भी धान
(चावल) की खेती
सफलतापूर्वक की जा सकती है।
जिस खेत में धान
(चावल) की रोपाई करनी हो, उसमें
अप्रैल-मई
में हरी
खाद के लिए ढैंचे की बुवाई 20-25 कि.ग्रा.
बीज प्रति हैक्टर की दर से करें।
आवश्यकतानुसार
सिंचाई करते रहें ओर जब फसल 5-6 सप्ताह
की हो जाए तो उसे मिट्टी में
अच्छी तरह मिला
दें,
तथा खेत में पानी भर दें, जिससे ढैंचा
अच्छी तरह से गल-सड़ जाए। अगर
हरी खाद
का प्रयोग
नहीं कर रहे हों तो 20-25 टन
गली-सड़ी गोबर की खाद
प्रति हैक्टर की दर से खेत
में बिखेरकर
अच्छी तरह जुताई की जाऐं।
उन्नतशील किस्मों का चुनाव
धान (चावल) की खेती के लिए
अपने क्षेत्र विशेष के
लिए उन्नत किस्मों का ही प्रयोग करना चाहिए
जिसस
कि अधिक से अधिक पैदावार ली जावें। धान
(चावल) की
प्रमुख किस्में नीचे दी जा
रही हैः-
अगेती किस्में (110-115 दिन): इनमें मुख्य
रूप से पूसा 2-21, पूसा-33, पूसा-834,
पी.एन.आर.
-381, पी.एन.आर.-162, नरेन्द्र धान
(चावल)-86, गोविन्द, साकेत-4 और नरेन्द्र धान
(चावल)-97 आदि प्रमुख है।
इनकी नर्सरी का समय 15 मई से
15 जून तक है तथा इनकी औसत पैदावार
लगभग 4.5-6.
टन/हैक्टेयर तक रहती है।
मध्य अवधि की किस्में (120-125 दिन):
किस्में इनमें मुख्य किस्में पूसा-169, पूसा-205, पूसा-44,
स
Wheat(gehu) farming
Gehu ki vaigyanik kheti ki jankari – गेहूं
के खेती
Har Kisan bhai Gehu ki vaigyanik aur
unnat kheti kar ke lakon mein kama
sakte hain | जानिए गेहू के खेती
की jaankari, jise bol chal mein
Wheat bhi bola jata hai | अगर वैज्ञानिको
द्वारा बताए गए तरीको से गेहूँ
की खेती की
जाये तो किसानो को बहुत फायदा हो सकता है, बस
कुछ बातों का खास ख्याल रखना होगा जैसे
की खेती के लिए भूमि
कैसी होनी चाहिए, जलवायु
कैसी होनी चाहिए, सिंचाई व
बुआई कब करना चाहिए आदि । निचे हम आपको इन
सभी बातों के बारे में बतायेंगे जिससे
की आप गेंहूँ की
खेती भली भांति कर सकेंगे
।
गेहू की खेती कैसे
करें ? / How to do Wheat farming
Aaj ke daur mein kisan bhai Gehu ki
scientific tarike se kheti kar ke lakhon
mein aasani se kama sakte hain. Agar
sahi tarike se wheat ki kheti bhi ki
jaye to aap accha profit save kar
sakte hain. Iske alawa aap haldi ki bhi
kheti kar k e accha khasa profit kama
sakte hain. To chaliye jante hai Gehun
ki kheti kaise kare:
भूमि का चुनाव/तैयारी / Selection
of Land
गेहूं की खेती करने समय
भूमि का चुनाव अच्छे से कर लेना चाहिए । गेहूँ
की खेती में अच्छे फसल
के उत्पादन के लिए मटियार दुमट भूमि को सबसे
सर्वोतम माना जाता है। लेकिन पौधों को अगर
सही मात्रा में खाद दी जाए
और सही समय पर उसकी
सिंचाई की जाये तो किसी
भी हल्की भूमि पर गेहूँ
की खेती कर के अच्छे
फसल की प्राप्ति की जा
सकती है । खेती से पहले
मिट्टी की अच्छे से जुताई
कर के उसे भुरभुरा बना लेना चाहिए। फिर उस
मिट्टी पर ट्रेक्टर चला कर उसे समतल
कर देना चाहिए।
जलवायु
गेहूँ के खेती में बोआई के वक्त कम
तापमान और फसल पकते समय शुष्क और गर्म
वातावरण की जरुरत होती
हैं। इसलिए गेहूँ की खेती
ज्यादातर अक्टूबर या नवम्बर के महिनों में
की जाती हैं।
बुआई
गेहूँ की खेती में बिज बुआई
का सही समय 15 नवम्बर से 30
नवम्बर तक होता है । अगर बुआई 25 दिसम्बर के
बाद की जाये तो प्रतिदिन लगभग 30kg
प्रति हेक्टेयर के दर से उपज में कमी
आजाती है । बिज बुआई करते समय
कतार से कतार की दूरी
20cm होनी चाहिए ।
बीजोपचार
गेहूँ की खेती में
बीज की बुआई से पहले
बीज की अंकुरण क्षमता
की जांच जरुर से कर लेनी
चाहिए। अगर गेहूँ की बीज
उपचारित नहीं है तो बुआई से पहले
बिज को किसी फफूंदी नाशक
दवा से उपचारित कर लेना चाहिए ।
खाद प्रबंधन
गेहूँ की खेती में समय पर
बुआई करने के लिए 120kg नत्रजन(nitrogen),
60kg स्फुर(sfur) और 40kg पोटाश(potash)
देने की अवेश्यकता पड़ती
है । 120kg नत्रजन के लिए हमें कम से कम
261kg यूरिया प्रति हेक्टेयर का इस्तेमाल करना
चाहिए । 60kg स्फुर के लिए लगभग 375kg
single super phoshphate(SSP) और
40kg पोटाश देने के लिए कम से कम 68kg म्यूरेटा
पोटाश का इस्तेमाल करना चाहिए ।
सिंचाई प्रबंधन
अच्छी फसल की प्राप्ति के
लिए समय पर सिंचाई करना बहुत जरुरी
होता है । फसल में गाभा के समय और दानो में दूध
भरने के समय सिंचाई करनी चाहिए ।
ठंड के मौसम में अगर वर्षा हो जाये तो सिंचाई कम
भी कर सकते है । कृषि वैज्ञानिको के
मुताबिक जब तेज हवा चलने लगे तब सिंचाई को कुछ
समय तक रोक देना चाहिए । कृषि वैज्ञानिको का ये
भी कहना है की खेत में
12 घंटे से ज्यादा देर तक पानी जमा
नहीं रहने देना चाहिए ।
गेहूँ की खेती में
पहली सिंचाई बुआई के लगभग 25 दिन
बाद करनी चाहिए । दूसरी
सिंचाई लगभग 60 दिन बाद और
तीसरी सिंचाई लगभग 80
दिन बाद करनी चाहिए ।
खरपतवार
गेहूँ की खेती में खरपरवार
के कारण उपज में 10 से 40 प्रतिशत
कमी आ जाती है । इसलिए
इसका नियंत्रण बहुत ही
जरुरी होता है । बिज बुआई के 30 से
35 दिन बाद तक खरपतवार को साफ़ करते रहना
चाहिए । गेहूँ की खेती में दो
तरह के खरपतवार होते है पहला
सकड़ी पत्ते वाला खरपतवार जो
की गेहूँ के पौधे की तरह
हीं दिखता है और दूसरा
चौड़ी पत्ते वाला खरपतवार ।
खड़ी फसल की देखभाल
कृषि वैज्ञानिको का कहना है की गेहूँ का
गिरना यानि फसल के उत्पादन में कमी
आना । इसलिए किसानो को खड़ी फसल
का खास ख्याल रखना चाहिए और हमेशा
सही समय पर फफूंदी
नाशक दवा का इस्तेमाल करते रहना चाहिए और
खरपतवार का नियंत्रण करते रहना चाहिए ।
फसल की कटनी और
भंडारा
गेहूँ का फसल लगभग 125 से 130 दिनों में पक
कर तैयार हो जाता है। फसल पकने के बाद सुबह
सुबह फसल की कटनी
करना चाहिए फिर उसका थ्रेसिंग करना चाहिए ।
थ्रेसिंग के बाद उसको सुखा लें । जब बिज पर 10 से
12 percent नमी हो तभी
इसका भंडारण करनी चाहिए ।
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